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सत्यनारायण व्रत की विधि (Satyanarayan Vrat ki Vidhi)
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सत्यनारायण व्रत की विधि (Satyanarayan Vrat ki Vidhi)

यह व्रत पापों के नाश, आपत्तियों की शान्ति और मनोरथ सिद्धि के लिए किया जाता है। संक्रान्ति, पूर्णिमा, अमावस्या या एकादशी के दिन का श्री सत्यनारायण का व्रत विशेष फलदायक माना गया है।

श्री सत्यनारायण व्रत की पूजा विधि:

पत्तों के खंभ, आम के पत्तों के बन्दनवार, पंच पल्लव, शालिग्राम की सुवर्ण मूर्ति, कलश, यज्ञोपवीत, पंचरत्न, ग्रहों की स्थापना हेतु लाल वस्त्र, भगवान के आसन के लिए सफेद वस्त्र, चावल, चन्दन, केसर, अबीर, धूप, पुष्प, तुलसी दल, नारियल, सुपारी, अनेक प्रकार के फल, माला, पंचामृत, पुण्याहवाचन, कलश, पीड़ा, दक्षिणा के लिए द्रव्य, नैवेध, प्रसाद के लिए पंजीरी, अठवाई, केला या मौसम के फल तैयार रखें।

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श्री सत्यनारायण का व्रत करने वाला जिस दिन कथा सुनना चाहे, उस दिन विहानवेला में स्नानादि से निवृत्त होकर सूर्यदेव को नमस्कार करे, फिर भगवान श्रीकृष्ण को स्मरण कर उन्हें श्रद्धापूर्वक नमस्कार करे तथा चन्दन, चावल, धूप, दीपादि से सूर्यदेव की आराधना करते हुए यह प्रार्थना करे कि हे सब ग्रहों के स्वामी, तेज के अधिष्ठाता, महान तेजस्वो! राजाओं के निमित्त, बड़ों के निमित्त, इंद्र की इन्द्रियों के निमित्त और सम्पूर्ण ग्रहों की शान्ति के निमित्त मैं श्री सत्यनारायण का पूजन करना चाहता हूँ। इसलिए मैं आपके द्वारा सबको पत्रपुष्प श्रद्धापूर्वक अर्पण करता हूँ। स्वीकार करें।

इसके बाद चन्द्रमा, मंगल, बुध, ब्रहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु आदि सब ग्रहों के अन्तर्यामी श्री सत्यनारायण (सत्यनारायण व्रत की विधि) को जानकर उन सबको एक एक करके नमस्कार करें। फिर महादेव की आत्मा में विष्णु को मानकर नमस्कार और प्रार्थना करें कि श्री देवी, लीला देवी और भूदेवी आपकी पत्नियां है, दिन रात दोनों पखवाड़े है, नक्षत्र तुम्हारे स्वरुप है, अश्विनी कुमार तुम्हारे तेज से प्रकाशित है, सो हे विष्णु देव! कृपा करके मुझे वैकुण्ठ लोक का वास दीजिए, मुझे दुखो से मुक्त कीजिये! हे लक्ष्मी के अन्तर्यामी श्रीसत्यनारायण मैं आपको श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ।

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प्रात: काल इस प्रकार का संकल्प करके व्रत करने वाले को सारे दिन निराहार रहना चाहिए। इस बीच विष्णु भगवान का ध्यान या गुणगान करते रहना चाहिए। सायंकाल को पूजन का विधान करना चाहिए। इससे पूर्व संध्या को स्नान करने के बाद ही पूजन के स्थान पर आसन पर बैठकर आचमन करना चाहिए तथा पवित्री धारण करनी चाहिए। तत्पश्चात श्रीगणेश जी के अन्तर्यामी श्री मन्नारायण, गौरी के अन्तर्यामी महादेव, वरुण के अन्तर्यामी श्रीविष्णु आदि देवताओं की प्रतिष्ठा व आह्वान करके यह संकल्प करना चाहिए। आज इस गौत्र और इस नाम वाला मैं पापों के नाश, आपत्तियों की शान्ति और मनोरथ सिद्धि के लिए सब सामग्री उपस्थित कर आपका पूजन करता हूँ।

फिर पाँचों लोक पालों और नवग्रह आदि का षोडशोपचार पूजन करके प्रार्थना करे – मैं श्री सत्यनारायण(सत्यनारायण व्रत की विधि) का यथाविधि पूजन करके और कथा श्रवण करता हूँ, सो आप सिद्धि प्रदान कीजिये। इसके बाद अर्घपाद, आचमन, स्नान, चन्दन, चावल, धूप, दीप, नैवेध, आचमनीय जल, सुगन्धित पान, फल, दक्षिण आदि युक्त विधिवत् मन्त्रों सहित पूजन से पहले पुष्प हाथ में लेकर श्री सत्यनारायण का ध्यान करे और उन पर छोड़े। फिर कथा श्रवण करे।

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पौराणिक कथा 

पुरातन युग में काशीपुरी में एक अति दरिद्र ब्राम्हण हुआ है। उसका नाम शतानन्द था। वह उदरपूर्ति के लिए भिक्षा माँगा करता था। एक दिन भगवान विष्णु ने वृद्ध ब्राम्हण के रूप में प्रकट होकर शतानन्द को श्री सत्यनारायण व्रत का सविस्तार विधान बतलाया और अंतर्ध्यान हो गये।

शतानन्द अपने मन में श्री सत्यनारायण का व्रत(सत्यनारायण व्रत की विधि) करना निश्चय करके घर लौटा। सारी रात उसकी चिंता में कट गई। अगले दिन सूर्योदय होते ही वह श्री सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके भिक्षा के लिए निकला। उस दिन उसे बहुत धन धान्य भिक्षा में मिला। संध्या समय पर लौटकर उसने श्री सत्यनारायण का विधिपूर्वक पूजन किया। उनकी कृपा से वह कुछ ही दिनों में सम्पन्न हो गया। शतानन्द जीवन पर्यन्त तक हर मास श्री सत्यनारायण का व्रत और पूजन करता रहा। अंत में वह विष्णुलोक को गया।

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एक बार शतानंद सम्पन्न होकर बन्धु बांधव सहित श्री सत्यनारायण की कथा सुन रहे थे। उसी समय एक लकडहारा भूखा प्यासा वहां जा पहुंचा। उसके प्रश्न करने पर शतानंद ने कहा, “यह श्री सत्यनारायण का व्रत मनोवांछित फलदायक है। मुझे इसी के द्वारा यह वैभव प्राप्त हुआ है।” इतना सुनकर लकडहारा बहुत प्रसन्न हुआ। वह प्रसाद लेकर और जल पीकर लौट गया।

अगले दिन वह लकडहारा श्री सत्यनारायण को स्मरण करता हुआ लकड़ी बेचने बाजार गया। उस दिन उसे लकड़ियों का बहुत अधिक मूल्य मिला। उसने उन रुपयों से पूजा की सामग्री खरीदी और घर लौट आया। वहां पर उसने बन्धु बांधव और पड़ोसियों को इकट्ठा किया तथा श्री सत्यनारायण का विधिवत (सत्यनारायण व्रत की विधि) किया। उनकी कृपा से कुछ ही दिनों में उसकी गरीबी जाती रही और वह सम्पन्न व्यक्ति हो गया। इसके बाद उसने ऐश्वर्य पूर्ण जीवन बिताया और मरने पर सत्यलोक में पहुँच गया।

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श्री सूतजी ने फिर एक और एनी कथा सुनाई। पुरातन युग में उल्कामुख नामक एक राजा हुआ है। वह बड़ा ही सत्यनिष्ठ और जितेन्द्रिय था। उसकी पटरानी भी बड़ी धर्मनिष्ठ थी। एक बार राजा उल्कामुख अपनी पटरानी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर बैठे श्री सत्यनारायण की कथा सुन रहे थे। उसी समय एक व्यापारी वहां आ पहुंचा। उसकी नौका असंख्य रत्नों एवं मूल्यवान पदार्थो से भरी पड़ी थी। वह भी नौका को किनारे लगाकर पूजा के स्थान पर पहुँच गया। वहां का चमत्कार देखकर उसने राजा से उसके सम्बन्ध में पूछा।

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राजा उल्कामुख ने कहा। “भद्र! हम अतुल तेजवान विष्णु भगवान का पूजन कर रहे है। यह व्रत मनुष्य के सभी मनोरथों को पूरा करने वाला है।” इतना सुनकर वह लौट आया। घर पहुंचकर उसने अपनी पत्नी से उक्त व्रत का वर्णन करते हुए कहा, “देवी! जब मेरे सन्तान होगी तब मैं यह व्रत करूंगा।” उसकी पत्नी लीलावती कुछ दिनों के बाद गर्भवती हुई। ठीक समय पर उसने एक सुंदर सी कन्या को जन्म दिया। वह कन्या चन्द्र कलाओं की तरह दिन प्रतिदिन बढने लग गयी। उसका नाम कलावती रखा गया। एक दिन लीलावती ने अपने पति से कहा, “आपने श्री सत्यनारायण व्रत का संकल्प किया था, उसे अभी तक पूर्ण नहीं किया है।”

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लीलावती की बात सुनकर उसने खा, “मैं कलावती की शादी पर यह व्रत करूंगा।” इसके बाद कलावती का पिता अपने कारोबार में उलझ गया। जब कलावती पूर्णतया यौवनावस्था पर पहुँच गयी तो पिता ने उसके लिए योग्य वर की खोज शुरू कर दी। कंचनपुर में उसे पुत्री के योग्य वर मिल गया। उसने उसके साथ कलावती की सगाई कर दी और कुछ दिनों बाद बड़ी धूमधाम से विवाह भी कर दिया। उस समय भी उसने श्री सत्यनारायण के व्रत (सत्यनारायण व्रत की विधि) को नहीं किया। इससे वे उस पर अप्रसन्न हो गये।

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कुछ दिनों के बाद दामाद ससुर व्यापार के लिए सागर के किनारे रत्नासार पुर चले गये। इस बीच श्री सत्यनारायण ने कुपित होकर उन्हें शापित किया। उन दिनों रत्नासारपुर में राजा चन्द्रकेतु का शासन था। दैवयोग से राजा के शाही खजाने से कुछ चोर बहुत से रत्न चुराकर ले गये। राजा के सैनिकों ने उनका पीछा किया। चोरों के सरदार ने जब देखा कि सैनिकों से बच पाना कठिन है तो उन्होंने वह चुराया हुआ माल उस बनिये के डेरे के पास डाल दिया और भाग गये। सैनिक चोरों को खोजते हुए वहां तक पहुँच गए। उन्हें वहां पर चोरी का सारा माल मिल गया। दामाद ससुर को चोर समझ कर बंदी बना लिया गया। राजा चन्द्रकेतु को सूचना दी गई कि दो चोर पकड़ लिए गये है।

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महाराज ने आदेश दिया कि उन्हें बंदीग्रह में डाल दिया जाए। उन दोनों ने सफाई के लिए राजा के सैनिकों से बहुत कुछ कहा पर किसी ने उनकी नहीं सुनी। उनकी साड़ी सम्पत्ति जो डेरे पर थी, शाही खजाने में रखवा दी गई। उधर लीलावती और कलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। रोटियों के भी लाले पड़ गए। एक दिन कलावती क्षुधा से पीड़ित होकर एक देवालय में चली गई। वहां पर श्री सत्यनारायण की कथा चल रही थी। वह भी वहां बैठकर कथा सुनने लग गयी। प्रसाद लेकर जब वह घर लौटी तब तक काफी रात हो गयी थी। माता के पूछने पर उसने सब बात कह दी। बेटी की बात सुनकर लीलावती भी श्री सत्यनारायण का व्रत करने के लिए तैयार हो गई।  अगले दिन उसने आयोजन किया।

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बन्धु बांधव सहित श्रद्धापूर्वक श्री सत्यनारायण की कथा सुनी और विनम्रस्वर में प्रार्थना कि मेरे पीटीआई ने संकल्प करके जो व्रत नहीं किया था उसी से आप कुपित थे। अब कृपा करके उनका अपराध क्षमा कीजिये। इससे श्री सत्यनारायण प्रसन्न हो गये।  श्री सत्यनारायण ने स्वप्न में राजा चन्द्रकेतु को दर्शन देकर कहा, “राजन! तुम्हारे बंदीग्रह में दो व्यापारी बंद है। उन्हें सवेरे छोड़ दो और उनका सारा धन वापस कर दो, वरन तुम सन्तान सहित नष्ट हो जाओगे।” इतना कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए। अगले दिन राजा चन्द्रकेतु की आज्ञा से उन दोनों दामाद ससुर को स्वतंत्र कर दिया गया। उनकी धन दौलत लौटा दी गई। वे दोनों राह में ब्राम्हणों को दान देते हुए घर की ओर प्रस्थान कर गए। राह में उन्हें सन्यासी के रूप में श्री सत्यनारायण मिले और उनके पास आकर बोले, “तुम्हारी नौकाओं में क्या है?”

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उस बनिए ने उत्तर दिया, “महाराज! इनमें लता पत्रों के सिवा कुछ भी नहीं है।” इतना सुनकर सन्यासी ने फिर कहा, “तुम्हारा कथन सत्य हो।” नौकाएं आगे बढ़ गई। वह सन्यासी भी आगे की ओर चल दिया। कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने नौकाएं रोकी और शौचादि क्रिया से निबटने के लिए दोनों नौकाओं से उतरे। तब उन्होंने देखा कि दोनों नौकाएं हल्की होकर ऊपर को उठ रही है। यह देख कर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कपड़ा हटाकर देखा तो वहां लता पत्रों के अलावा कुछ भी नहीं था। यह देखकर बनिया तो मूर्छित हो गया। दामाद ने उसे होश में लाते हुए कहा, “आप घबराए नहीं। यह सब उस सन्यासी की करामात का फल है। चलकर उनसे प्रार्थना कीजिये। सब ठीक हो जाएगा।

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बनिया सचेत होकर बैठ गया। उसके मन में दामाद की बात बैठ गई थी। वह दौड़ा हुआ उस ओर गया, जिधर सन्यासी महाराज गए थे। कुछ दूरी पर वे सन्यासी भी मिल गए। उसने उनके चरणों में गिर कर भक्तिपूर्वक क्षमायाचना की। इससे श्री सत्यनारायण (सत्यनारायण व्रत की विधि)प्रसन्न हो गए और इच्छित वरदान देकर वहीँ अंतर्ध्यान हो गए। अब उसने लौटकर नौकाओं पर देखा तो वे पहले के समान धन रत्नों से भरपूर थी। यह देखकर उस बनिये ने वहीँ पर श्री सत्यनारायण का पूजन (सत्यनारायण व्रत की विधि) करके कथा सुनी और फिर घर की ओर प्रस्थान किया। उसने नगर के पास पहुंचकर पत्नी के पास अपने आने का समाचार भेजा। उस समय पत्नी लीलावती श्री सत्यनारायण जी की कथा सुन रही थी। उसने अपनी बेटी से कहा कि तुम्हारे पिताजी आ गए है।

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शीघ्र ही कथा पूरी करके उनके स्वागत के लिए चलो। माता के वचन सुनकर कलावती तो इतनी प्रसन्न हुई कि वह कथा का प्रसाद लेना भी भूल गई और कथा के पूर्ण होते ही पिता और पति के स्वागत के लिए दौड़ पड़ी। परन्तु जैसे ही वह तट पर पहुंची उसके पति की नौका जल में डूब गई। यह देखते ही वह बनिया ‘हाय-हाय’ करके छाती पीटने लग गया। कलावती भी पति की मृत्यु पर सती होने के लिए तैयार हुई। उसी समय आकाशवाणी हुई, “हे वणिक! तेरी कन्या श्री सत्यनारायण के प्रसाद का अनादर करके पति से मिलने के लिए दौड़ी आई थी। यदि यह जाकर प्रसाद ले ले और फिर लौट कर आये तो इसका पति जी उठेगा।“

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इतना सुनते ही कलावती घर की ओर दौड़ पड़ी। वहां से प्रसाद लेकर जब वह नदी के किनारे पर पहुंची तो देखती क्या है कि उसके पति की नौका सरिता के जल में तैर रही है। श्री सत्यनारायण की महिमा को देखकर वह बनिया भी प्रसन्न हो गया। सब बन्धु बांधवों के साथ फिर लौटा। जीवन पर्यन्त तक वह पूर्णमासी, अमावस्या या संक्रान्ति को श्री सत्यनारायण की कथा सुनता रहा।

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इसके बाद श्री सूतजी ने एक ओर कथा कही। पुरातन युग में तुंगध्वज नामक राजा प्रजा पालन में सदा तत्पर रहता था। एक बार वह वन में आखेट के लिए निकला। संध्या समय जब वह अपने शिकार के साथ प्रासाद को लौट रहा था तब उसने देखा कि बरगद के वृक्ष के नीचे बहुत से ग्वाल वाल इकट्ठे होकर श्री सत्यनारायण की कथा(सत्यनारायण व्रत की विधि) सुन रहे है। राजा तुंगध्वज ने न तो श्री सत्यनारायण को नमस्कार किया और न ही पूजन के पास गया। परन्तु गोप बाल महाराज को देख कर स्वयं प्रसाद लेकर दौड़ गए और उनके सामने प्रसाद रख दिया। राजा ने उस प्रसाद को छुआ तक नहीं और उपेक्षा की दृष्टि डालता हुआ प्रासाद की ओर बढ़ गया।

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राजद्वार पर पहुँचते ही तुंगध्वज को पता चला कि उसके पुत्र-पौत्र, धन-धान्यादि सब नष्ट हो चुका है। तब उसे ध्यान आया कि यह सब श्री सत्यनारायण के कोप का फल है। वह तत्काल वापस गया। वहां पर अब भी पूजन चल रहा था। तब राजा ने उन सब के साथ बैठकर श्रद्धा और भक्ति से पूजन किया तथा प्रसाद ग्रहण किया। इसके बाद जब प्रासाद लौटा तो देखता क्या है कि सारी सम्पत्ति पूर्ववत है और मृत आत्मीय जी उठे है। उस दिन से राजा तुंगध्वज समय समय पर श्री सत्यनारायण का व्रत करता रहा।
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